संपादकीय

सधे नज़रिये से विसंगतियों पर चोट
Posted Date : 22-Apr-2019 2:14:54 pm

सधे नज़रिये से विसंगतियों पर चोट


मीरा गौतम
मतदान केंद्र पर झपकी’ कवि केदारनाथ की 38 कविताओं का संग्रह है। इसकी मूल पाण्डुलिपि को उन्होंने मृत्यु से पूर्व ही तैयार कर दिया था, जिसे बाद में सुनील कुमार सिंह ने प्रकाशित करवाया। संग्रह की कविताओं में केदारनाथ सिंह अपने गांव से धरती और धरती से पूरे ब्रह्मांड की यात्रा करते हैं। कविताएं आत्म-संवाद की निजी शैली में लिखी गयी हैं। वर्तमान और अतीत की यात्रा करती कविताएं उनके अंतिम क्षणों की मन:स्थिति और चिंतन को पाठकों के सामने रखती हैं। मूलत: कविताओं में उनकी जनवादी सोच अभिव्यक्त हुई है। विसंगतियों पर प्रहार करते केदारनाथ सिंह बेहद विनम्र और सधे हुए नजर आते हैं। यह वसीयत है, जिसे वह पाठकों को सौंप रहे हैं।
शीर्षक कविता ‘मतदान केंद्र पर झपकी’ में मतदान केंद्र पर वोट देने पहुंचे मतदाता को वोटरलिस्ट से अपना नाम गायब मिलता है। व्यवस्था की इस झपकी से आहत कवि अकेला नहीं है। वंचितों की जमात में वह व्यर्थता में सार्थकता की तलाश करता है, जिसमें धरती उसमें ऊर्जा का संचार करती है और वह नये संघर्ष के लिए तत्पर हो जाता है। इस क्रम में उसे भी सुकून की झपकी आ जाती है। ‘पानी’ कविता भी उस वंचित को समर्पित है, जिसका धर्म पानी है। हवा जिसे दीक्षा देती है। रास्ता ही देवता और घास-पात उसके सहपाठी हैं। मकई का पेड़ उसका कल्पवृक्ष है। साधनहीन यह वंचित दुनिया के चौराहे पर वृद्धावस्था तक भला-चंगा खड़ा है क्योंकि धरती की जड़ों ने उसे पोषित किया है।
‘माचिस लाना न भूलना’ में देश की साइकिल में हवा नहीं है तो क्या हुआ? अंतत: वह जहां पहुंचा दे वहीं से नागरिक अपना रास्ता स्वयं ही चुन लें, उसी में उनकी भलाई है। यही कवि की मार्क्सवादी सोच है, जहां वह व्यवस्था से समझौता करने को तैयार नहीं है। ‘करोड़ों साल पुरानी’ कविता में ब्रह्मांड को वह करोड़ों साल पुरानी जर्जर बैलगाड़ी कहकर उसकी धुरी की मरम्मत की बात कहता है। 21वीं सदी की निरंतर परिवर्तनकामी यात्रा में कवि आकांक्षा अवश्य कर सकता है परंतु यह सदी तो सब कुछ अनसुना करके आगे बढ़ रही है। पीछे तो वही मनुष्य छूटा जा रहा है, जिसके लिए कवि के मन में असंख्य दर्द मौजूद हैं। एक इनसान में एक ऐसा इनसान मौजूद है जो इस दुनिया में पूरी तरह अनफिट है। ‘कालजयी’ कविता में कवि का मानना है कि कालजयी कविता वही होती है जो लिखकर फाड़ दी जाती है। ‘सज्जनता’ कवियों में कवि को सांप से डर नहीं लगता, ‘पर सज्जनों/ क्षमा करना/ मुझे सज्जनता से/ डर लगता है।’ इस कविता में मित्रता का स्वांग भरने वाले कथित भितरघातियों पर व्यंग्य है। ‘खून’ कविता का परिदृश्य अत्यंत विराट है क्योंकि यात्रा के इस महापर्व में, ‘पृथ्वी के सारे खून एक हैं।’ जब-जब खून की एक बूंद कहीं टपकती है तो किसी दूर गांव के बच्चे की धडक़न उसे सुन लेती है। धरती की अरबों धडक़नें एक ही लय में धरती को घुमाती हैं और हर खून एक-दूसरे खून से बतियाने लगता है। ‘वसीयतनामा’ में कवि ने अपनी खाल खेत के नाम कर दी है।
‘खुरपी’ कविता में निहत्थी खुरपी खेत के बीचोंबीच पड़ी रहकर भी धरती की रक्षा का सारा दायित्व निभा लेती है क्योंकि वह धरती का औजार है जिस पर दुनिया के भरण-पोषण की जिम्मेदारी है। ‘उद्दाम संगीत’ कविता में कवि को मृत्यु के सौंदर्य पर लिखी हुई कविता की प्रतीक्षा है। मृत्यु के ऊपर लिखी गयी कविता दुनिया की सर्वोत्तम कविता होगी, जिसे अभी तक लिखा ही नहीं गया है। ‘कितने बरस लगते हैं’ में देश को एक खुले मुंह में रोटी का कोर पहुंचाने में आखिर इतने बरस क्यों लग जाते हैं।
कुल मिलाकर कविताओं में सादगी और विरोधक साथ-साथ चल रहे हैं। कब वह दरवाजे खुलेंगे जो कवि को दुनिया का पंचतंत्र सिखा पायेंगे? कवि ने मनुष्यता की देखरेख की जिम्मेदारी ही अपनी कविताओं को सौंपी है। पाठक भी इस दायित्च को देखें और समझें।
००

 

बेलगाम बदजुबानी
Posted Date : 21-Apr-2019 1:54:19 pm

बेलगाम बदजुबानी

आखिरकार चुनाव आयोग बिगड़े बोल बोलने वाले नेताओं के खिलाफ कार्रवाई को मजबूर हुआ। मगर मलाल इस बात का कि ऐसा उसने सुप्रीमकोर्ट की सख्ती के बाद किया जो उसे बहुत पहले ही कर लेना चाहिए था। आयोग अपने अधिकार क्षेत्र व शक्तियों को लेकर लाचारगी दिखाता रहा है, जबकि एक मजबूत संवैधानिक संस्था के नाते संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत कार्रवाई के लिये उसके पास पर्याप्त अधिकार हैं। दरअसल, आयोग को टी. एन. शेषन जैसे कड़े फैसले लेने वाले अधिकारियों की जरूरत है। बहरहाल, आयोग ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण व बंटवारे के बोल बोलने वाले नेताओं, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, पूर्व मुख्यमंत्री मायावती, सपा के दिग्गज नेता आजम खान और केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी के खिलाफ कुछ समय के लिये चुनाव प्रचार में भाग लेने पर रोक लगा दी है। बाकी नेता जहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की साजिशें रचते नजर आए, वहीं सपा नेता आजम खान ने तो मर्यादाओं की सभी सीमाएं लांघ दी। उन्होंने अपनी प्रतिद्वंद्वी भाजपा की जयाप्रदा के खिलाफ शर्मसार करने वाली जो टिप्पणियां कीं, उससे लोकतंत्र हतप्रभ है। पिछले चुनाव में भी आजम खान पर आयोग ने प्रतिबंध लगाया था और शीर्ष अदालत ने माफी मांगने को कहा था।

बात इन नेताओं की ही नहीं है, पूरे देश से आये दिन नेताओं के बड़बोलेपन और आचार संहिता की धज्जियां उड़ाने वाले बयान सामने आते रहते हैं। हिमाचल के भाजपा अध्यक्ष ने जहां कांग्रेस अध्यक्ष के खिलाफ असंसदीय बयान दिया वहीं सुप्रीमकोर्ट ने अदालत की टिप्पणियों को तोड़मरोडक़र प्रधानमंत्री के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने पर राहुल गांधी को अवमानना का नोटिस भेजा है। दरअसल, बिना रीढ़ के नेता अपने वायदों-घोषणापत्रों को लेकर आश्वस्त नहीं होते और दुष्प्रचार का सहारा लेते हैं। सांप्रदायिकता, जातिवाद व प्रांतवाद का जहर घोलते हैं। चुनाव के दौरान राजनेताओं की जुबान बावन गज की हो जाती है। येन-केन-प्रकारेण प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ जहरीला प्रचार करके सत्ता की चाबी तलाशने वाले नेता यह भूल जाते हैं कि जनता के ज्वलंत मुद्दे क्या हैं। नकारात्मक प्रचार के जरिये सुर्खियों में बने रहने की लालसा नेताओं को बड़बोले बयान दिलाती है। यह हमारी चिंता का विषय होना चाहिए कि सात दशक के लोकतांत्रिक परिदृश्य में विमर्श का स्तर इतना कैसे गिर गया। क्यों विकास, बिजली-पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार जैसे ज्वलंत मुद्दे चुनावी विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाते। दरअसल, नेताओं को महज प्रचार करने से रोकना समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। जब तक ऐसे नेताओं के चुनाव लडऩे पर रोक नहीं लगती और जनता इनका बहिष्कार नहीं करती तब तक समस्या का स्थायी समाधान संभव नहीं है।

००

चंदे की पारदर्शिता
Posted Date : 20-Apr-2019 2:14:28 pm

चंदे की पारदर्शिता

निस्संदेह सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम आदेश से चुनाव चंदे में पारदर्शिता को लेकर उठायी जा रही आशंकाओं का निराकरण होगा जो कि पारदर्शिता की दिशा में स्वागतयोग्य कदम है। शीर्ष अदालत ने राजनीतिक दलों को निर्देश दिया है कि वे 30 मई तक बंद लिफाफों में चुनाव आयोग को चुनावी चंदा देने वाले स्रोत की जानकारी दें। राजनीतिक दल चुनावों में पैसा पानी की तरह बहाते हैं और चंदे के स्रोत पर जैसे पर्दा डालने का प्रयास करते हैं, वह जनप्रतिनिधित्व अधिनियम का उल्लंघन ही है। सरकार चुनावी चंदे में पारदर्शिता के नाम पर जिस चुनावी बांड व्यवस्था को लेकर आई थी, उसके निहितार्थों को लेकर चुनाव आयोग पहले से ही शंका जताता रहा है। इसमें बैंक के जरिये बांड खरीदकर मोटा चंदा देने वालों की पहचान तो होती है मगर यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि किस राजनीतिक दल को चंदा दिया गया है। खबरें हैं भाजपा को ही चुनावी बांडों से सबसे ज्यादा फायदा हुआ। इस नई व्यवस्था को चुनाव आयोग तथा एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स चुनाव सुधारों के लिए प्रतिगामी कदम मानते रहे हैं। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बांड पर रोक तो नहीं लगायी मगर उसमें पारदर्शिता लाने की पहल जरूर की है। सरकार की दलीलें—लोकतंत्र में चुनाव सुधार पक्षधरों के गले नहीं उतरती। हास्यास्पद ही है कि कोर्ट में एटॉर्नी जनरल कहे कि जनता का इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि राजनीतिक दलों को चुनावी चंदा कहां-कहां से मिला है।

भारत में चुनावी चंदे के जरिये काला धन खपाने और जीतने वाले दल की सरकार से प्रत्युत्तर में प्रत्यक्ष-परोक्ष लाभ उठाने के आरोप लगते रहे हैं। राजग सरकार की दलील गले नहीं उतरती कि चुनावी बांड से चुनावी चंदे की व्यवस्था अब पारदर्शी होगी। राजनीतिक दल बताने के लिए बाध्य नहीं थे कि चुनाव बांड किसने दिया। चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए सक्रिय संस्थाएं और चुनाव आयोग प्रक्रिया में सुधार की मांग कर रहे थे। जरूरी है कि चुनावी चंदा देने वाले की पहचान उजागर हो ताकि उन द्वारा भविष्य में अनुचित लाभ उठाने के प्रयास पर निगाह रखी जा सके। वैसे विसंगति यह भी है कि पहचान उजागर होने पर सत्ता परिवर्तन के बाद उस चंदा देने वाले व्यक्ति को इस बात के लिए परेशान किया जा सकता है कि उसने फलां राजनीतिक दल को चंदा दिया था। पहले बीस हजार रुपये तक का चंदा देने वाले की पहचान उजागर करने की आवश्यकता नहीं थी। तब राजनीतिक दलों का अधिकांश चंदा इस छूट के रास्ते मिलता था। अब इस सीमा को दो हजार तक घटाने का भी कोई लाभ नजर नहीं आता। इससे जुड़ा चिंताजनक पहलू यह भी है कि कोई विदेशी कंपनी भी ये बांड खरीद सकती है। जाहिर है इसके जरिये भारतीय लोकतंत्र की नीतियों को प्रभावित करने की कोशिश भी हो सकती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जब शीर्ष अदालत इस बाबत अंतिम फैसला लेगी तो इन चिंताओं के निराकरण की दिशा में कदम बढ़ाएगी।

चैत में काल वैशाख
Posted Date : 20-Apr-2019 2:13:16 pm

चैत में काल वैशाख

मंगलवार की शाम देश के मध्य-पश्चिमी क्षेत्रों में आए तूफान के चलते 64 लोगों की जान चली गई, लगभग इतने ही लोग घायल हुए और काफी संपत्ति का नुकसान हुआ। तूफान का सबसे बड़ा प्रकोप राजस्थान और मध्य प्रदेश को झेलना पड़ा जहां क्रमश: 25 और 21 लोगों के मारे जाने की खबर है। इसके अलावा गुजरात में 10 और महाराष्ट्र में तीन लोगों की जान इस तूफान की भेंट चढ़ी। जान के अलावा खेती का भी काफी नुकसान हुआ और जगह-जगह खेतों में खड़ा या कटकर बांधे जाने को पड़ा गेहूं खराब हो गया। मंड़ाई के बाद मंडियों में पहुंचे गेहूं को भी इस तूफान ने निशाना बनाया।

चुनावी माहौल चल रहा है तो थोड़ी बहुत राजनीतिक गर्मागर्मी के बाद जान और माल के लिए मुआवजे का ऐलान भी जल्दी हो गया। मौसम विभाग ने इस तूफान की वजह पश्चिमी विक्षोभ को बताया है। उसका कहना है कि तेज गर्मी से अरब सागर के ऊपर मंडरा रही नमी जब बंगाल की खाड़ी से आने वाली पूर्वी हवाओं से मिली तो इस तूफानी परिघटना का जन्म हुआ। बहरहाल, मौसम विभाग की मानें तो तूफान का खतरनाक दौर अब पीछे छूट चुका है और आने वाले दिनों में एक बार फिर गर्मी में तेज बढ़त की संभावना है। उत्तर भारत में खासकर वैशाख या मई का महीना तेज तूफानों के लिए जाना जाता है, जिसका सबसे बुरा प्रभाव पूर्वी प्रांतों में देखा जाता है। प. बंगाल में इस्तेमाल होने वाले काल वैशाख शब्द से इनकी भयावहता का अंदाजा मिलता है।

लेकिन इधर कुछ सालों से न सिर्फ तूफानों का समय थोड़ा पहले खिसक आया है, बल्कि इनकी दिशा भी बदली हुई सी लग रही है। गर्मी के तूफान अब पश्चिम से आने लगे हैं और इनकी तीक्ष्णता कभी अप्रैल तो कभी मार्च में ही देखी जाने लगी है। वैसे गेहूं की फसल के लिए पछुआ हवा और पश्चिमी विक्षोभ को वरदान माना जाता है। इसके बगैर गेहूं की खेती की कल्पना भी मुश्किल है। लेकिन जलवायु वैज्ञानिक लगातार बता रहे हैं कि मौसम चक्र में आ रहा बदलाव भारत समेत पूरे दक्षिण एशिया में गेहूं की फसल के लिए खास तौर पर नुकसानदेह साबित हो रहा है। अच्छा होगा कि हमारे मौसम

विज्ञानी खुद को केवल महीने-दो महीने की भविष्यवाणी तक सीमित रखने के बजाय मौसमों के पैटर्न में आ रहे दीर्घकालिक बदलावों को भी समझें और किसानों को उनके मुताबिक फसल चक्र में बदलाव का सुझाव दें। इस बीच अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा की रिपोर्ट में भी धरती की सतह का तापमान पिछले पंद्रह सालों से लगातार बढ़ते जाने की पुष्टि की गई है। इसकी वजह से ग्लेशियर गलते हैं तो बाढ़ आती है और वायुमंडल में ठंडी-गर्म हवाओं की टकराहट से तूफान आते हैं। ग्लोबल वार्मिंग की इस विभीषिका को हमें देर-सबेर अपनी राष्ट्रीय कार्यसूची के शीर्ष पर लाना ही होगा।

संरक्षण की बाट जोहती अमूल्य विरासतें
Posted Date : 19-Apr-2019 2:26:12 pm

संरक्षण की बाट जोहती अमूल्य विरासतें

दुनिया में संभवत: भारत एकमात्र ऐसा देश है, जहां के भूगोल में विविधता बिखरी पड़ी है। इसीलिए भारत को ‘विविधता में एकता’ का संदेश देने वाली कहावत से जाना जाता है। लेकिन भारत में ऐसे अनेक स्थल और पुस्तकें हैं, जिनका विश्व-धरोहर सूची में शामिल न होना चिंताजनक है। यूनेस्को यानी ‘संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक संगठन’ द्वारा जिन धरोहरों को ‘विश्व धरोहर’ में शामिल किया जाता है, वह इस संगठन के मानदंडों के अनुरूप सबसे ज्यादा कहीं हैं तो भारत में हैं।

विडंबना है कि इस संगठन के 16 नवंबर 1945 को अस्तित्व में आने से लेकर अब तक देश की केवल 37 और मध्य प्रदेश की केवल तीन धरोहर खजुराहो, सांची और भीमबेटका को ही विश्व-धरोहर की श्रेणी में लिया गया है। छत्तीसगढ़ की तो एक भी धरोहर इसमें शामिल नहीं है। छत्तीसगढ़ के सिरपुर स्मारकों को जरूर इस श्रेणी में स्थान दिलाने के प्रयास हो रहे हैं। ओरछा को भी विश्व-धरोहर का दर्जा दिलाने की कोशिशें तेज हुई हैं। सूची में भारत की कुल 1074 धरोहरें दर्ज हैं। प्राचीन ग्रंथ वेद भी गडरियों के गीत के रूप में दर्ज हैं।

धरोहर या विरासत शब्द का स्मरण होते ही पर्यटन की जिज्ञासा अनायास ही मन-मस्तिष्क में जाग जाती है। प्राचीनकाल में पर्यटन शब्द का अर्थ सिर्फ भ्रमण से लिया जाता था। उस समय ये यात्राएं दीर्घकालिक व रोमांचकारी हुआ करती थीं। इनमें कोई बड़ा उद्देश्य भी अंतर्निहित रहता था। चीनी यात्री फाहयान ने भारत, श्रीलंका और नेपाल की यात्राएं बौद्ध ग्रंथों को इक_ा करने के लिए की थीं। भारत में यही काम राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत, नेपाल और चीन की यात्रा कर बड़ी संख्या में प्राचीन भारतीय साहित्य की पांडुलिपियां एकत्रित करके किया था। पुर्तगाली वास्को डी गामा ने भारत की यात्रा अपने व्यापार को भारत में स्थापित करने की दृष्टि से की थी। चार्ल्स डार्विन 22 साल की उम्र में ही बीगल नाम के जहाज पर सवार होकर प्रकृति को समझने के लिए निकल पड़ा।

बीसवीं सदी का अंत होते-होते पर्यटन की धारणा में आमूलचूल बदलाव आ गया। भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारवाद का प्रभाव पर्यटन पर स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा। फलत: ज्यादातर यात्राएं मौज-मस्ती के लिए होने लगीं। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र ने 18 अप्रैल को ‘विश्व धरोहर दिवस’ मनाने का प्रचलन शुरू करके अनेक पुरातात्विक व ऐतिहासिक स्मारकों और प्रकृति से जुड़े उद्यानों व अभयारण्यों को विश्व धरोहर की श्रेणी में लाने का सिलसिला शुरू किया हुआ है, जिससे विश्व पर्यटन में वृद्धि हो। भारत में प्राचीन स्मारकों और धरोहरों की रक्षा का काम भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (आईएसआई) करता है। जर्मनी ने अपनी धरोहरों को संभालने के लिए 2013 में करीब 50 करोड़ यूरो खर्च किए थे। यहां 13 लाख स्मारक हैं। हालांकि भारत समेत समूचे विश्व में स्मारकों के निर्माण और संरक्षण की लंबी परंपरा रही है।

दरअसल, दूसरे विश्वयुद्ध में अनेक नगरों को बहुत हानि हुई थी। अमेरिका ने 1945 में नागासाकी और हिरोशिमा पर परमाणु हमले करके इन दोनों नगरों को मिट्टी में मिला दिया था। चूंकि युद्ध में नष्ट हुई विरासत का पुनर्निर्माण संभव नहीं था, इसलिए अनेक शिल्पियों ने इनके यथास्थिति में संरक्षण की पैरवी की। 1964 में इटली के वेनिश शहर में संपन्न हुए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में सांस्कृतिक धरोहरों को बचाने और उनके जीर्णोद्धार की वैश्विक संधि हुई। इसमें अकेली इमारतों को ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विकास दिखाने वाले क्षेत्र और नगरों को भी संरक्षण के योग्य माना गया। हमारा अहमदाबाद, मुंबई का विक्टोरिया टर्मिनल रेलवे स्टेशन और पूर्वोत्तर की नैरोगेज रेल लाइन इसी श्रेणी की विश्व धरोहर हैं। जर्मनी ने दुनिया की धरोहरों को बचाने की विशेष पहल की है। बावजूद अफगानिस्तान के तालिबानी आतंकवादियों ने मार्च 2001 में चट्टानों पर उकेरी गई विश्व प्रसिद्ध बुद्ध की प्रतिमाओं को डायनामाइट लगाकर उड़ा दिया था और दुनिया देखते रहने के अलावा कुछ नहीं कर पाई थी।

बहरहाल विश्व धरोहर के रूप में संरक्षित किए गए स्थलों के दर्शन करने से ज्ञात होता है कि सभ्य होते मनुष्य की सनातन मानवतावादी संस्कृति दुनिया में खंड-खंड मौजूद है। इस नाते भारत में जो विपुल वन-संपदा और वनवासियों का लोक संस्कृति से जुड़ा जीवन है, उसे भी विश्व-धरोहर के दर्जे में लाना जरूरी है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ वन संपदा की दृष्टि से देश में सबसे ज्यादा समृद्धशाली प्रदेश हैं, पर वहां का एक भी उद्यान या अभ्यारण्य अब तक धरोहर सूची में जगह नहीं बना पाया है। सिंधु घाटी की सभ्यता से जुड़ा प्राचीन मोहनजोदड़ों आज भले ही पाकिस्तान में है, इसे भी विश्व धरोहर सूची में शामिल कर संरक्षित किया जाना जरूरी है।

००

माफी से गुरेज
Posted Date : 17-Apr-2019 1:51:59 pm

माफी से गुरेज

ब्रिटिश संसद में प्रधानमंत्री टेरीजा मे ने जलियांवाला बाग नरसंहार को ब्रिटिश-भारतीय इतिहास पर शर्मनाक धब्बा बताते हुए खेद तो जताया मगर माफी मांगने का साहस नहीं जुटाया। भारतीय अतीत के इस दर्दनाक घटनाक्रम के सौ साल पूरे होने के मौके पर यदि ब्रिटिश सरकार अपने कारिंदों की करतूतों पर माफी मांग लेती तो वाकई शहीदों की आत्मा को शांति मिलती। इससे पहले भी ब्रिटिश महारानी एलिजाबेथ-द्वितीय 1997 में जलियांवाला बाग के दौरे के दौरान कह चुकी हैं कि जलियांवाला बाग हमारे अतीत का दर्दनाक  उदाहरण है। वर्ष 2013 में भी तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने जलियांंवाला बाग स्मारक पर जाकर श्रद्धांजलि तो दी मगर इस घटना के लिये माफी नहीं मांगी। ऐसे में जब जापान व फ्रांस अपने साम्राज्यवादी मंसूबों के लिये हुए अमानवीय कृत्यों के लिये माफी मांग चुके हैं तो ब्रिटेन को ऐसा करने से परहेज क्यों है। ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल जलियांवाला हत्याकांड के एक वर्ष बाद इस कृत्य को राक्षसी बता चुके हैं मगर सरकारें ब्रिटिश साम्राज्यवाद के भयावह चेहरे के सत्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। यही वजह है कि ब्रिटेन से भारत के संबंध आजादी के बाद गहरे तो रहे हैं, लेकिन उनमें आत्मीयता का भाव नहीं रहा।

दरअसल, आजादी के बाद प्रवासी भारतीयों ने ब्रिटिश समाज, अर्थव्यवस्था व राजनीति में प्रभावी हस्तक्षेप किया है। यहां तक कि वे ब्रिटिश राजनीतिक दलों, खासकर लेबर पार्टी में वजनदार हैं। लेबर पार्टी के सांसद वीरेंद्र शर्मा ने भी संसद में कहा था कि यह सही मौका है जब ब्रितानी सरकार को जलियांवाला नरसंहार के लिये माफी मांगनी चाहिए। इतना ही नहीं, ब्रिटिश संसद के वेस्टमिनस्टर हाल में ब्रितानी सांसदों ने जलियांवाला बाग नरसंहार के लिये औपचारिक माफी के लिये दबाव बनाया था। यहां तक कि विपक्षी लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कार्बिन ने कहा कि इस कांड के शहीद बिना शर्त माफी मांगे जाने के हकदार हैं। नि:संदेह ब्रिटिश सरकार को इस कांड में देश की भूमिका को स्वीकार करते हुए औपचारिक रूप से माफी मांगनी चाहिए। जो हुआ, उस सच को स्वीकार किया जाना चाहिए और शहीदों के प्रति सम्मान जाहिर करना चाहिए। यदि ब्रिटिश सरकार लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करती है तो दुनिया के सबसे बड़े नरसंहारों में एक जलियांवाला बाग कांड के लिये बहुत पहले ही माफी मांग लेनी चाहिए थी, जैसे जापान युद्ध अपराधों के लिये माफी मांग चुका है। कुछ लोग मानते हैं कि भारतीय संसद से भी माफी की मांग उठनी चाहिए।

००