संपादकीय

जीएम फसलों के जंजाल से किसान बेहाल
Posted Date : 08-Jun-2019 12:35:06 pm

जीएम फसलों के जंजाल से किसान बेहाल

प्रमोद भार्गव
दुनिया में शायद भारत एकमात्र ऐसा देश है, जिसमें नौकरशाही की लापरवाही और कंपनियों की मनमानी का खमियाजा किसानों को भुगतना पड़ता है। हाल ही में हरियाणा के एक खेत में प्रतिबंधित बीटी बैंगन के 1300 पौधे लगाकर तैयार की गई फसल को नष्ट किया गया है। ये फसल हिसार के किसान जीवन सैनी ने तैयार की थी। उसने जब हिसार की सडक़ों के किनारे बैंगन की इस पौध को खरीदा तो उसे पता नहीं था कि यह पौध प्रतिबंधित है। जीवन ने सात रुपए की दर से पौधे खरीदे थे। उसने ही नहीं, हिसार के फतेहाबाद, डबवाली के अनेक किसानों ने ये पौधे खरीदे थे। ढाई एकड़ में लगी जब यह फसल पकने लग गई तब कृषि एवं बागवानी अधिकारियों ने यह फसल यह कहकर नष्ट करा दी कि यह प्रतिबंधित आनुवंशिक बीज से तैयार की गई है। इसे नष्ट करने की सिफारिश नेशनल ब्यूरो फॉर प्लांट जैनेटिक रिसोर्स ने की थी।
परीक्षण में दावा किया गया कि खेत से लिए नमूनों को आनुवंशिक रूप से संशोधित किया गया है। जबकि इन अधिकारियों ने मूल रूप से बैंगन की पौध तैयार कर बेचने वाली कंपनियों पर कोई कार्रवाई नहीं की। दरअसल जैव तकनीक बीज के डीएनए यानी जैविक संरचना में बदलाव कर उनमें ऐसी क्षमता भर देता है, जिससे उन पर कीटाणुओं, रोगों और विपरीत पर्यावरण का असर नहीं होता। बीटी की खेती और इससे पैदा फसलें मनुष्य और मवेशियों की सेहत के लिए कितनी खतरेेेेेनाक हैं, इसकी जानकारी निरंतर आ रही है। बावजूद देश में सरकार को धता बताते हुए इनके बीज और पौधे तैयार किए जा रहे हैं।
भारत में 2010 में केंद्र सरकार द्वारा केवल बीटी कपास की अनुमति दी गई है। इसके परिणाम भी खतरनाक साबित हुए हैं। एक जांच के मुताबिक जिन भेड़ों और मेमनों को बीटी कपास के बीज खिलाए गए, उनके शरीर पर रोंए कम आए और बालों का पर्याप्त विकास नहीं हुआ। इनके शरीर का भी संपूर्ण विकास नहीं हुआ। जिसका असर ऊन के उत्पादन पर पड़ा। बीटी बीजों का सबसे दुखद पहलू है कि ये बीज एक बार चलन में आ जाते हैं तो परंपरागत बीजों का वजूद ही समाप्त कर देते हैं। जांचों से तय हुआ है कि कपास की 93 फीसदी परंपरागत खेती को कपास के ये बीटी बीज लील चुके हैं। सात फीसदी कपास की जो परंपरागत खेती बची भी है तो वह उन दूरदराज के इलाकों में है जहां बीटी कपास की अभी महामारी पहुंची नहीं है। नए परीक्षणों से यह आशंका बढ़ी है कि मनुष्य पर भी इसके बीजों से बनने वाला खाद्य तेल बुरा असर छोड़ रहा होगा।
जिस बीटी बैंगन के बतौर प्रयोग उत्पादन की मंजूरी जीईएसी ने दी थी, उसे परिवर्धित कर नये रूप में लाने की शुरुआत कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय धारवाड़ में हुई थी। इसके तहत बीटी बैंगन, यानी बैसिलस थुरिंजिनिसिस जीन मिला हुआ बैंगन खेतों में बोया गया था। जीएम बीज निर्माता कंपनी माहिको ने दावा किया था कि जीएम बैंगन के अंकुरित होने के वक्त इसमें बीटी जीन इंजेक्शन प्रवेश कराएंगे तो बैंगन में जो कीड़ा होगा वह उसी में भीतर मर जाएगा। मसलन, जहर बैंगन के भीतर ही रहेगा और यह आहार बनाए जाने के साथ मनुष्य के पेट में चला जाएगा। इसलिए इसकी मंजूरी से पहले स्वास्थ्य पर इसके असर का प्रभावी परीक्षण जरूरी था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।
राष्ट्रीय पोषण संस्थान हैदराबाद के प्रसिद्ध जीव विज्ञानी रमेश भट्ट ने करंट साइंस पत्रिका में लेख लिखकर चेतावनी दी थी कि बीटी बीज की वजह से यहां बैंगन की स्थानीय किस्म ‘मट्टुगुल्ला‘ बुरी तरह प्रभावित होकर लगभग समाप्त हो जाएगी। बैंगन के मट्टुगुल्ला बीज से पैदावार के प्रचलन की शुरुआत 15वीं सदी में संत वदीराज के कहने पर मट्टू गांव के लोगों ने की थी। इसका बीज भी उन्हीं संत ने दिया था।
बीटी बैंगन की ही तरह गोपनीय ढंग से बिहार में बीटी मक्का का प्रयोग शुरू किया गया था। इसकी शुरुआत अमेरिकी बीज कंपनी मोंसेंटो ने की थी। लेकिन कंपनी द्वारा किसानों को दिए भरोसे के अनुरूप जब पैदावार नहीं हुई तो किसानों ने शर्तों के अनुसार मुआवजे की मांग की। किंतु कंपनी ने अंगूठा दिखा दिया। जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इस चोरी-छिपे किए जा रहे नाजायज प्रयोग का पता चला तो उन्होंने पर्यावरण मंत्रालय की इस धोखे की कार्यप्रणाली पर सख्त एतराज जताया। नतीजतन बिहार में बीटी मक्का के प्रयोग पर रोक लग गई लेकिन हरियाणा सरकार कंपनियों के विरुद्ध सख्ती दिखाने में नाकाम रही।
मध्य प्रदेश में बिना जीएम बीजों के ही अनाज व फल-सब्जियों का उत्पादन बेतहाशा बढ़ा है। अब कपास के परंपरागत बीजों से खेती करने के लिए किसानों को कहा जा रहा है। इन तथ्यों को रेखांकित करते हुए डॉ. स्वामीनाथन ने कहा है कि तकनीक को अपनाने से पहले उसके नफा-नुकसान को ईमानदारी से आंकने की जरूरत है।

 

प्रेरणा से बड़ा बदलाव
Posted Date : 05-Jun-2019 1:28:14 pm

प्रेरणा से बड़ा बदलाव

रेखा श्रीवास्तव

जीवन की दिशा कब और कौन बदल दे, नहीं कह सकते हैं और मेरे जीवन की दिशा सिर्फ दो पंक्तियों ने बदल कर रख दी है। मेरे पापा इसके सूत्रधार बने। मैं हाई स्कूल में थी और मैंने तबला एक विषय के रूप में ले लिया। स्कूल में संगीत का कोई टीचर नहीं था। बोर्ड के प्रेक्टिकल के समय मेरा कोई शिक्षक न था जिसके साथ संगत करने का मेरा अभ्यास हो। परीक्षक ने मुझे 17/50 अंक देकर पास कर दिया और थ्योरी में मेरे 45/50 थे। जब रिजल्ट देखा तो मैं बहुत रोई। बुरा लगा कि मुझे इतने कम अंक मिले और मेरी परसेंटेज खऱाब हो गयी। मैंने निर्णय किया कि मैं इंटर में तबला नहीं लूंगी। पापा ने मुझे एक कार्ड बोर्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखकर दिया ‘करत-करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान, रस्सी आवत जात ते सिल पर होत निशान।’ फिर बोले कि तुम इंटर में भी तबला लोगी। बाकी चीजें मैं घर पर लाकर देता हूं। इसे अपने सामने रखो और अभ्यास करो। उन्होंने मुझे एक तबला लाकर दिया और एक किताब भी, जिसमें तालों और उसके विषय में अभ्यास के लिए सारी सामग्री थी। बोर्ड के एक्जाम में मैंने अपना जो डेमो ताल रखा था वह सबसे अलग था। मैंने अपने बाहर से आये हुए परीक्षक को बता दिया कि मेरा कोई टीचर नहीं है और मैं जो भी बजाने जा रही हूं हो सकता है कि संगत ठीक ठीक न हो सके लेकिन फिर भी आप जिसे समझे मेरे साथ संगत के लिए बैठा सकते हैं।

वह परीक्षक अंधे थे और उनका एक शिष्य साथ में आया था। उन्होंने अपने शिष्य से कहा कि इनके संगत करने के लिए हारमोनियम बजाइए। मुझे इंटर में 45/50 प्रेक्टिकल में मिले थे और कुल विशेष योग्यता के मानक से बहुत आगे। इन पंक्तियों ने प्रेरणा बनाने का काम जीवन भर किया और आज भी कर रही हैं। जब मुझे आईआईटी कानपुर में मानविकी विभाग तो समाजशास्त्र की एक परियोजना में लिया गया था और मुझे सिर्फ और सिर्फ मेरे लेखन के बारे में जानने वाले संकाय के प्रोफेसरों के कारण मानविकी से कंप्यूटर साइंस में भेज दिया गया। वहां के प्रोफेसर, जिनके साथ मैं काम कर रही थी, उन्होंने मुझे उसमें पड़े हुए टाइपिंग के सॉफ्टवेयर से अवगत कराया। मैंने फिर वहां पर 24 साल काम किया और जितनी टाइपिंग स्पीड मेरी थी कोई मानने को तैयार नहीं होता कि मैंने कभी टाइपिंग नहीं सीखी है। पापा को याद सिर्फ किसी मौके पर नहीं किया जाता लेकिन मेरे जीवन के हर मोड़ पर उनकी शिक्षाएं मेरा संबल बनी रहीं और बनी रहेंगी।

मौसम की चुनौतियांं
Posted Date : 14-May-2019 1:43:14 pm

मौसम की चुनौतियांं

देश के एक बड़े हिस्से में भारी गर्मी पड़ रही है। कई शहरों का तापमान 46 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जा रहा है। बढ़ते तापमान का जनजीवन पर गहरा असर पड़ा है। कई जगहों पर तो स्कूल बंद कर दिए गए हैं। अब हर साल इस मौसम में यही अहसास होता है कि इस बार गर्मी पिछले साल से ज्यादा है। मतलब यह कि गर्मी साल दर साल बढ़ रही है। भारतीय मौसम विभाग के अनुसार 1901 के बाद साल 2018 में सबसे ज़्यादा गर्मी पड़ी थी, लेकिन अभी से यह यह अनुमान लगाया जा रहा है कि इस साल औसत तापमान में 0.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है।

पिछले महीने मौसम की जानकारी देने वाली वेबसाइट एल डोरैडो ने दुनिया के सबसे गर्म 15 इलाकों की लिस्ट जारी की। ये सारी जगहें मध्य भारत और उसके आसपास की हैं। लिस्ट में जो 15 नाम शामिल हैं उसमें से 9 महाराष्ट्र, 3 मध्य प्रदेश, दो उत्तर प्रदेश और एक तेलंगाना का है। एक सामान्य राय है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण ऐसा हो रहा है। लेकिन कई विशेषज्ञ मानते हैं कि शहरों में बढ़ते निर्माण कार्यों और उसके बदलते स्वरूप के चलते हवा की गति में कमी आई है। एक राय यह भी है कि तारकोल की सडक़ और कंक्रीट की इमारत ऊष्मा को अपने अंदर सोखती है और उसे दोपहर और रात में छोड़ती है। बढ़ती गर्मी से सीधा जुड़ा हुआ है जल संकट।

महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में अभी ही सूखे जैसे हालात हो गए हैं, जबकि पिछले वर्ष इन राज्यों में अच्छी-खासी बरसात हुई थी। वर्ष 2018 में मॉनसून की स्थिति बेहतर रहने के बावजूद बड़े बांधों में पिछले वर्ष से 10-15 फीसदी कम पानी है। केंद्रीय जल आयोग द्वारा शुक्रवार को जारी आंकड़ों के अनुसार देश के 91 जलाशयों में उनकी क्षमता का 25 फीसदी औसत पानी ही उपलब्ध है। दरअसल मार्च से मई तक होने वाली प्री मॉनसून वर्षा में औसत 21 प्रतिशत की कमी आई है। भारतीय मौसम विभाग के अनुसार उत्तर-पश्चिम भारत में प्री मॉनसून वर्षा में 37 प्रतिशत की कमी रही जबकि प्रायद्वीपीय भारत में 39 पर्सेंट की कमी। हालांकि फोनी तूफान की वजह से हुई वर्षा ने मध्य भारत, पूर्व और पूर्वोत्तर भारत में इस कमी की भरपाई कर दी। लेकिन अल नीनो की वापसी के अंदेशे से इस बार मॉनसून के कमजोर होने की आशंका मंडरा रही है।

मौसम का अनुमान करने वाली निजी संस्था स्काईमेट वेदर ने कहा कि अप्रैल में यह कमजोर होता नजर आया था, पर इसमें फिर मजबूती के लक्षण दिख रहे हैं। जो भी हो, प्रशासन को सतर्क हो जाना चाहिए। जून में खरीफ की बुवाई शुरू हो जाएगी। देखना होगा कि किसानों को कोई दिक्कत न हो। इसी तरह गर्मी से जानमाल की क्षति रोकने के लिए भी तमाम जरूरी उपाय करने होंगे।

आयोग की बंदिशों को दरकिनार कर प्रचार
Posted Date : 25-Apr-2019 1:51:08 pm

आयोग की बंदिशों को दरकिनार कर प्रचार

रेशू वर्मा

लोकतंत्र का कुम्भ चल रहा है और हर कोई इसमें अपनी प्रार्थना के साथ डुबकी लगा रहा है। प्रचार के रोजाना नए तरीके आ रहे हैं और व्यापार के भी। और इन सबके बीच चुनाव आयोग घर का मुखिया बनकर आगे आता है, जिसकी मंजूरी के बिना कोई काम नहीं हो सकता। चुनाव आयोग ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर बनी फिल्म के प्रदर्शन पर चुनाव ख़त्म होने तक रोक लगा दी है। आयोग के अनुसार चुनाव के दौरान फिल्म का प्रदर्शन आचार संहिता का उल्लंघन माना जायेगा।

चुनाव आयोग के हस्तक्षेप के बाद फिल्म का प्रदर्शन तो रुक गया लेकिन यह हस्तक्षेप अपने साथ ढेर सारे सवाल और मुद्दे छोड़ गया। सबसे पहला मुद्दा तो यह कि फिल्म को जितना प्रचार आम दिनों में मिलता, उससे ज्यादा उसे प्रदर्शित होने या न होने के विवाद के बाद मिल गया। जिस भी पार्टी को जितना नफा-नुकसान होना था, वो भी हो ही लिया। लेकिन इस सवाल से भी बड़ा सवाल ये है कि देश के गिने चुने सिनेमाघरों में प्रदर्शित होने से किसी फिल्म को जितने दर्शक मिलते, उससे कहीं ज्यादा आज के समय में यूट्यूब और अन्य वीडियो प्लेटफार्म पर उपलब्ध हैं। यूट्यूब पर चल रहे चुनाव प्रचार का गहराई से विश्लेषण करें तो साफ होता है कि यूट्यूब पर बहुत कुछ ऐसा है जो चुनाव आयोग के नियमों से मुक्त है।

हाल में आये आंकड़ों के मुताबिक भारत यूट्यूब प्रयोक्ताओं के मामले में अमेरिका से आगे निकल गया है। भारत में करीब 26 करोड़ पचास लाख सक्रिय मासिक प्रयोक्ता हैं यूट्यूब के। 2020 तक यूट्यूब के भारतीय प्रयोक्ताओं की तादाद 50 करोड़ के पार जा सकती है। गौर करने की बात यह है कि इस बढ़ोतरी में से अधिकांश बढ़ोतरी छोटे शहरों से आयी है।

अब भारत में दस लाख से ज्यादा सब्सक्राइबरों वाले चैनलों की तादाद 1200 है। पांच साल पहले यह संख्या सिर्फ 15 थी। और भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यूट्यूब पर देखे गये वीडियो में से 95 प्रतिशत क्षेत्रीय भाषाओं में हैं। इस आम चुनाव में भी यूट्यूब और इन्टरनेट के इस्तेमाल को बखूबी देखा जा सकता है। जहां एक तरफ मुख्य मीडिया में आकर अपना प्रचार करना, विज्ञापन देना या वीडियो दिखाना चुनाव आयोग की परिधि में आ सकता है लेकिन सोशल मीडिया के प्लेटफार्म पर पूरी आजादी के साथ दिखाया जा सकता है। इस समय सभी प्रमुख दल अपने प्रचार के लिए सोशल मीडिया का सहारा ले रहे हैं।

यूट्यूब पर कई फिल्में ऐसी लोड होती हैं, जिनका सीधा ताल्लुक किसी राजनीतिक दल से नहीं है पर उन्हें किसी राजनीतिक दल के समर्थक द्वारा बनाया गया है। उसका संदेश साफतौर पर पहुंच जाता है कि फिल्म क्या कहना चाहती है। नियम के तहत इस तरह के मैटर, गीत आदि को किसी पार्टी से सीधे तौर पर नहीं जोड़ा जा सकता पर उसका आशय वही है किसी एक पार्टी या व्यक्ति विशेष की वकालत करना। सुपरटोन डिजिटल का एक वीडियो है, जिसमें मैं भी चौकीदार के संदेश के साथ एक गायिका गीत गा रही है। इस गीत को 12 अप्रैल 2019 करीब छह बजे शाम तक नौ लाख से ज्यादा लोग देख चुके थे। यूट्यूब के जरिये यह लाखों लोगों तक पहुंच रहा है। यानी यह वह हर काम कर रहा है, जिस पर चुनाव आयोग अपनी तरफ से नियंत्रण रख़ना चाहता है, पर इस तरह के कई वीडियो लाखों की तादाद में देखे जा रहे हैं जो चुनाव आयोग की बंदिश या किसी भी बंदिश से मुक्त हैं।

यूट्यूब पर एक फिल्म है-मैं हूं चौकीदार। 12 अप्रैल 2019 को करीब छह बजे तक इस फिल्म को करीब 44 लाख व्यू मिल चुके थे। यानी माना जा सकता है कि करीब 44 लाख लोगों ने यह फिल्म देखी। फिल्म में इस तरह के चरित्र दिखाये गये हैं कि सब कुछ साफ समझा जा सकता है कि कौन केजरीवाल है और कौन मनमोहन सिंह। गंभीरता से देखें तो यह फिल्म एक हद तक चुनाव प्रचार भी करती है।

इस तरह की राजनीतिक मार्केटिंग में भाजपा सबसे आगे है, कांग्रेस उसके मुकाबले में कहीं नहीं है यूट्यूब पर। वामपंथी दलों का तो नामोनिशान तक नहीं है इस तरह की राजनीतिक मार्केटिंग के मैदान में। बहुत स्मार्ट तरीके से यूट्यूब के जरिये कुछ राजनीतिक दल अपना संदेश पहुंचा रहे हैं। यूट्यूब का बतौर माध्यम अभी गंभीर अध्ययन किया जाना बाकी है। यह अध्ययन हो तो साफ होगा कि तमाम नियमों से मुक्त राजनीतिक संदेश किस तरह से यूट्यूब के जरिये दिये गये जो किसी राजनीतिक दल के खाते में दर्ज न हुए पर जिनका पूरा फायदा किसी न किसी राजनीतिक दल ने उठाया।

मौसम की तल्खी
Posted Date : 23-Apr-2019 1:59:58 pm

मौसम की तल्खी

पिछले दिनों आंधी-तूफान के साथ तेज बारिश व ओलों ने जहां गेहूं की तैयार-कटी फसलों को भारी नुकसान पहुंचाया वहीं पचास से अधिक जानें भी गईं। अप्रैल के महीने में मई जैसे तूफान व बारिश मौसम के बदले मिजाज की ओर संकेत कर रहे हैं। हालांकि, यह मौसमी संकट पश्चिमी विक्षोभ के चलते पैदा हुआ, मगर हमें आने वाले समय में मौसम के मिजाज में लगातार आ रही तल्खी के निहितार्थों को गंभीरता से समझना होगा। तमाम वैज्ञानिक व मौसम संबंधी उन्नति के बावजूद ऐसी मौसमी प्रवृत्तियों को टाला तो नहीं जा सकता मगर जन-धन की हानि से कुछ बचाव तो किया ही जा सकता है। ऐसी प्राकृतिक आपदाओं की समय रहते चेतावनी और कारगर राहत-बचाव से जन-धन की हानि को कम जरूर किया जा सकता है। दरअसल, धरती के लगातार बढ़ते तापमान के मूल में हमारे पर्यावरणीय विरोधी विकास व प्रदूषण की बड़ी भूमिका है, जिसे कम करने में विकसित देश जिम्मेदारी से बच रहे हैं और उसका बोझ विकासशील देशों पर डाल रहे हैं। दरअसल, विकासशील देश दोहरी मार झेल रहे हैं। एक तो उनकी खाद्य शृंखला इस बदलाव से बुरी तरह प्रभावित हो सकती है वहीं तापमान बढ़ाने वाली गैसों के उत्सर्जन को कम करने के नाम पर विकास को धीमा करने का दबाव है।

दरअसल, पिछले कुछ समय से मौसम के मिजाज में तेजी से आ रहे बदलाव को गंभीरता से लिये जाने की जरूरत है। हाल के आंधी-तूफान और बारिश व ओलों से जहां गेहूं की फसल को नुकसान पहुंचा है, वहीं आम व लीची की फसल भी बुरी तरह प्रभावित हुई है। ऐसे में मौसम व कृषि विज्ञानियों को चाहिए कि मौसम में आ रहे दीर्घकालिक बदलावों का गंभीर अध्ययन करें। इसी के अनुरूप नये फसल चक्र को तैयार करने की जरूरत है ताकि तैयार फसल की तबाही से किसान आत्महत्या करने को मजबूर न हों। शोधों में यह बात शिद्दत से उभरकर सामने आई है कि एक ही क्षेत्र में मौसम अलग-अलग तरह से व्यवहार कर रहा है। कहीं बाढ़ है तो कहीं सूखा है। रेगिस्तानी इलाकों में भी बाढ़ की खबरें आने लगी हैं। ऐसे में किसानों को बदलते मौसम के अनुरूप ढालने के लिये जागरूक करने की जरूरत है। जरूरत इस बात की भी है कि ग्लोबल वार्मिंग को समय का सत्य मानते हुए इसे राष्ट्रीय प्राथमिकता की सूची में शामिल किया जाये।

चौथाई सदी का फासला
Posted Date : 23-Apr-2019 1:59:21 pm

चौथाई सदी का फासला

मैनपुरी में 19 अप्रैल को समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह और बीएसपी सुप्रीमो मायावती का मंच पर आपसी सौहार्द प्रदर्शित करना मौजूदा चुनाव के लिहाज से ही नहीं, भारत की संसदीय राजनीति की दृष्टि से भी एक अहम घटना है। करीब ढाई दशक पहले बाबरी मस्जिद ध्वंस के कुछ ही समय बाद 1993 के यूपी विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन ने भारतीय जनता पार्टी के पहले उभार को थाम लिया था। उस समय इन दोनों नेताओं के साथ आने को न केवल प्रदेश की सत्ता बल्कि सामाजिक वर्चस्व का पारंपरिक ढांचा बदलने की शुरुआत की तरह लिया गया था।

यह दक्षिण भारत की तरह उत्तर भारतीय राजनीति में भी दलितों-पिछड़ों का जोर बढऩे का ऐसा उपक्रम था जिसकी गूंज देशभर में महसूस की गई थी। हालांकि, दो साल के अंदर ही दोनों पार्टियों में असह्य कलह देखने को मिली और 1995 के कुख्यात गेस्टहाउस कांड के बाद मुलायम और मायावती जिस तल्खी के साथ एक-दूसरे से अलग हुए, उसकी मिसाल समकालीन राजनीति की किसी और घटना से नहीं दी जा सकती। फिर एक-दूसरे को जानी दुश्मन की तरह देखते हुए वे यूपी में अपनी-अपनी राजनीति करते रहे और अपना कद भी बढ़ाते रहे। एक समय ऐसा आया जब दोनों नेता प्रदेश में अपने दल की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाने में सफल रहे लेकिन उसके बाद दोनों का ग्राफ अचानक इतना नीचे आया जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की होगी।

मौजूदा आम चुनाव से ठीक पहले समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने मिलकर चुनाव लडऩे की घोषणा की तो यह भी एक बेमिसाल बात ही थी लेकिन इसके साथ यह हकीकत भी जुड़ी थी कि अखिलेश और मायावती में कभी कोई निजी मनमुटाव नहीं रहा। मोटे तौर पर इसे मजबूरी का जुड़ाव माना गया क्योंकि अकेले दम पर बीजेपी को चुनौती देने की हैसियत दोनों में किसी की नहीं थी। इस अंकगणित को रसायनशास्त्र में बदलने का काम दो दौर का मतदान हो जाने के बाद मुलायम के मंच पर मायावती की मौजूदगी से संभव हो पाया है। दोनों नेता आज भी अपने समर्थकों पर जबरदस्त भावनात्मक पकड़ रखते हैं और उनके सौहार्द का संदेश राज्य के सबसे निचले स्तर तक पहुंचेगा।

चुनाव नतीजों पर इसके ठोस प्रभाव का पता बाद में चलेगा लेकिन अभी इससे यह तो साबित हो ही गया है कि राजनीति में कोई भी संभावना अंतिम रूप से समाप्त नहीं होती। हालांकि, ऐसा अप्रत्याशित मेल देश में पहली बार नहीं दिख रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में मुंह की खाने के बाद जिस तरह नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने बिहार विधानसभा चुनावों में हाथ मिलाकर बीजेपी को शिकस्त दी, फिर कुछ ही समय बाद नीतीश ने बीजेपी से मिलकर लालू को जो झटका दिया, वह उलटफेर भी इसी श्रेणी में आता है। जाहिर है, 'खत्म कर देने' और 'मिटा देने' जैसी शब्दावली के लिए हमारी राजनीति में कोई जगह नहीं होनी चाहिए।